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JOIN-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान-BAAS

07 November 2009

बास के राष्ट्रीय अध्यक्ष को जानें!

मैं लेखक, कवि, चिन्तक, शोधार्थी और समाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता हूँ।

मुझे तनावमुक्त जीवन विषय पर व्याख्याता के रूप में व्याख्यान देने हेतु बुलाया जाता रहा है।

सैकडों दम्पत्तियों को निजी विवादों से बाहर निकालकर सुकूनभरी जिन्दगी जीने में सहयोग करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

निराश्रितों, छोटे बच्चों, जरूरतमन्द स्त्रियों, बीमारों, निःशक्तजनों और बुजुर्गों के लिये काम करना मुझे सुकून देता है।

मेरा मानना है कि धन दौलत से बहुत सारी भौतिक समस्याओं का समाधान तो हो सकता है, लेकिन जिस व्यक्ति के जीवन में प्यार, सम्मान एवं शान्ति नहीं है, उसका जीवन निरर्थक है।

मुझे और भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) को जानना चाहते हैं तो कृपया निम्न विवरण को धैर्यपूर्वक और बिना पूर्वाग्रह के पढें। कमजोर दिल वाले नहीं पढ़ें तो ही बेहतर होगा!

बास अर्थात भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के साथ जुड चुके एवं आगे जुडने वाले सम्मानित साथियों से मेरा कहना है कि-

मैं भी आप जैसा ही अत्यन्त साधारण सा व्यक्ति हूँ। मैं जन्म से या किसी अन्य कारण से कोई विशिष्ट नहीं हूँ! 

मेरा जन्म 22 जून, 1961 (रिकार्ड पर 20 जून, 1962) को पूर्वी राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के "सेवा" नामक गाँव में एक अति साधारण से आदिवासी परिवार के में हुआ था। मेरे पूर्वजों में से कभी किसी ने स्कूल शिक्षा तक पूरी नहीं की। मेरे पिताजी मात्र हिन्दी लिखना-पढना जानते हैं। उनकी हमेशा एक इच्छा रही कि उनकी सन्तानें शिक्षा से वंचित नहीं रहें और उच्चतम स्तर तक प्रगति करें। जिसके लिये उन्होनें अपनी हैसियत से कई गुना अधिक प्रयास किये। लेकिन परिस्थितियाँ हमेशा हर व्यक्ति के वश में नहीं होती हैं।

बहुत छोटी उम्र में कुछ दुष्ट लोगों ने मुझे इतना सताया कि 1967 में स्कूल में प्रवेश लेने के बाद 1970-71 में तीसरी कक्षा पास करने के बाद चौथी कक्षा में पढते हुए मुझे बीच में ही स्कूल छोडना पड़ गया।

इसके बाद 1977 तक मेरा जीवन जंगलों, पहाडों एवं खेतों में गाय-भैंसों के चरवाहे के रूप में बीता। इस दौरान खेती का तकरीबन हर काम मैंने सीखा और किया भी।

उस जमाने में छठी कक्षा में अंग्रेजी (एबीसीडी की जानकारी) एवं संस्कृत की पढाई शुरु होती थी। इस दौरान मैं तीसरी कक्षा तक पढी बातों को भी प्रायः भूल चुका था। 1977 आते-आते मैं पूरा किसान बन चुका था। मुझे हजार में संख्या (6244) तक लिखना नहीं आता था। ऐसे वक्त में परिवार के हालातों में कुछ सुधार हुआ। 

मेरे पूज्य पिताजी की अपनी सन्तानों को शिक्षा दिलाने की असीम इच्छा के कारण (एवं सम्भवतः शिक्षा अर्जित करने के प्रति मेरी लगन को भांपकर) मुझे फिर से शिक्षा दिलाने का निर्णय लिया गया।

जनवरी, 1977 में एक शिक्षक को 50 रुपये प्रतिमाह पर मुझे घर पर ही पढाने का जिम्मा दिया गया और अगस्त, 1977 में दसवीं की परीक्षा का प्राईवेट फार्म भराया दिया गया।

मुझे अपनी पढाई की शुरुआत में अंग्रेजी की एबीसीडी से, हिन्दी, गणित, संस्कृत, विज्ञान जैसे अनिवार्य विषयों के साथ और वैकल्पिक विषयों के रूप में हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, नागरिक शास्त्र को पढना था। इसके साथ-साथ ये किसी को विश्वास भी नहीं था, कि मैं उस उम्र में, एक साथ इतनी सारी वर्षों की पढाई, इतने कम (मात्र एक वर्ष में) समय पूर्ण करके परीक्षा पास कर सकता था।

अनेक लोग तो मेरे पिताजी के इस निर्णय का मजाक भी उडाते थे। ऐसे हालात में पढ़ी करने के लिए मुझे खेती के काम से पूरी तरह से निजात भी नहीं मिल सकी। खेतों में काम करने के साथ-साथ, भैंसों को चारा-पानी, भैंसों को नहलाना आदि मेरी दैनिक जीवनचर्या के हिस्सा थे।

अन्त में 5-6 माह के लिये मुझे पास के कस्बे में 17 किलोमीटर दूर प्रतिदिन साईकल से अंग्रेजी एवं गणित का ट्यूशन पढने भी जाना पडता था।

अब मैं केवल यही कह सकता हूँ कि मैंने निश्चय ही दिन-रात पढाई की होगी। तब ही तो जनवरी, 1977 से मार्च-अप्रेल, 1978 तक पढाई करने के बाद केवल 15 महिने पढाई करके मैंने मार्च-अप्रेल, 1978 में दसवीं की प्राईवेट परीक्षा देकर उत्तीर्ण भी की और फिर से मैंने, मेरे जंगली जीवन ने पास के एक क़स्बे में स्थित स्कूल की चारदीवारी में प्रवेश पाया।

कॉलेज की शिक्षा पूरी करने से पहले ही जीवन में फिर से दुःखों का पहाड टूट पडा और मेरी कॉलेज शिक्षा पूरी नहीं हो सकी। जीवन कहाँ से कहाँ मुड गया। एक तरह से 1982 में मेरा जीवन समाप्त ही हो गया और फिर मुझे 1986 में नया जीवन मिला, यद्यपि इस दौरान मैंने अपनी बीए की शिक्षा पूर्ण कर ली।

इस नये जीवन की कीमत मैं आज तक चुका रहा हूँ। सम्भवतः मेरे बच्चों को भी चुकानी पडेगी। चुका ही रहे हैं। उन्हें अनेक सुखों एवं अनेक अहसासों से वंचित हो जाना पडा है। वंचित हो रहे हैं!

दूसरा जीवन मिलने के बाद मुझे जिस प्रकार मेरे परिवार, कुटुम्ब, रिश्तेदारों, समाज एवं सरकार ने कदम-कदम पर लगातार उत्पीडित किया, उसे मैं फिलहाल शब्दों में बयां नहीं कर सकता। हाँ जिन्दा रहा तो दिल दहला देने वाले इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को मैं समय आने पर सार्वजनिक अवश्य ही करना चाहूँगा। जिससे लोगों को पता चल सके कि माता, पिता, भाई और रिश्तेदार कितने क्रूर हो सकते हैं!

यहाँ पर केवल इतना ही बताना चाहता हूँ कि मुझे एक ही जीवन में कई जीवनों के बराबर दुख-दर्द झेलने पडे हैं। हम जानते हैं कि हर दर्द का इलाज दवा के रूप में खोजा जाता है, लेकिन हर दवा एक नया दर्द दे जाती है। ये मैंने अच्छी तरह से अनुभव किया है। इसी का परिणाम है कि मैं आज भी कभी न समाप्त होने वाले अनेक दुख-दर्द सह रहा हूँ। 

मेरी जीवन में ऐसी-ऐसी तकलीफें आयी और आज भी हैं कि जिनकी एक सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता। इस सबके बावजूद भी मैंने अभी तक हार नहीं मानी है और हर कदम पर, हर जगह संघर्ष करता हुआ आगे बढते रहने का प्रयास करता रहता हूँ।

आत्महत्या के विचार भी आये!

यहाँ केवल इतना अवश्य ही बतलाना चाहूँगा कि समय बदलने पर जन्म देने वाले माता-पिता भी दुश्मनों से बुरा सुलूक करने से नहीं चूकते हैं। लेकिन परमात्मा की मुझ पर इतनी असीम कृपा रही है कि मुझे मेरे पूज्य माता-पिता, प्रिय छोटे भाईयों और मेरी पत्नी सहित हर अपने ने मुझे इतने दुःख-दर्द दिये हैं कि अनेकों बार मेरे मन में अपने जीवन को समाप्त कर लेने तक के विचार आये। लेकिन कोई ऐसी शक्ति हमेशा मेरे साथ रही है, जिसने मुझे हर कदम पर सहारा दिया, बचाया तथा मजबूती प्रदान की और मैं हर दुःख-दर्द से गुजरकर अधिक मजबूत होकर आगे बढ रहा हूँ।

मैं साफ शब्दों में कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने अपने दुखदर्दों को समाज के दुखदर्दों के साथ मिलाकर नहीं देखा होता तो शायद मैं आज जिन्दा नहीं होता।

सम्भवतः इसी का परिणाम है कि "भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" (बास) जैसे राष्ट्रीय संगठन का जन्म हुआ और मैं लगातार प्रतिदिन और इसके लिये समय देकर अपने आपको इतना व्यस्त रखता हूँ कि दुखदर्द अपने आप दूर रहते हैं।

लेकिन आखिर मैं भी तो इंसान ही हूँ। मेरी भी भावनाएँ हैं। मेरे भी अहसास हैं। मेरी भी वे सब इच्छाएँ हैं, जो एक आम व्यक्ति की होती हैं। लेकिन नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा किया तो मेरे जीवन में परिवार एवं समाज द्वारा फिर से दखलन्दाजी शुरू हो जायेगी। जिसके लिये मैं तैयार नहीं हूँ। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं एक कायर व्यक्ति हूँ। बल्कि जब भी मैं अपने जीवन को सुकून देने वाले निर्णय लेना चाहता हूँ तो हमेशा मैं, मैं नहीं रहता, बल्कि मैं अपने अपको अपने तीन बच्चों के पिता के रूप में सब कुछ सहते रहने को विवश पाता रहा हूँ।

यद्यपि मैं जानता हूँ, कि निजी तौर मैं प्रतिपल अपने जीवन को खो रहा हूँ। निजी तौर पर एक व्यक्ति के रूप में मुझे जो कुछ अपने परिवार से मिलना चाहिये, वह नहीं मिल सका है। अब कोई उम्मीद भी नहीं है, लेकिन मुझे अपने आपसे कुछ पाने का तो हक होना ही चाहिये! वह भी नहीं मिल पाये तो.....?

खैर जी छोडो इन बातों को, मैं तो केवल यही बताने के लिये ये सब बातें लिख गया, ताकि आप लोगों को इतना सा पता चल सके कि जो व्यक्ति बास का नेतृत्व कर रहा है, वह व्यक्ति क्या है? उसके जीवन के बारे में आपको जानने का हक होना चाहिये, जिससे कि आप आगे बढते समय सारी बातों को ध्यान में रखकर काम करें।

मेरा बास के प्रिय साथियों से केवल इतना ही कहना है कि मैंने इस दुनियाँ में नाइंसाफी से लडने और आगे बढते रहने के लिये जो सीखा है, वह निम्न पंक्तियों में बयाँ कर रहा हूँ :-

1. भारत के सर्वकालिक भारत रत्न शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह के दिल में जलने वाली चिनगारी हमारे अन्दर हमेशा जलती रहनी चाहिये, लेकिन इस चिनगारी की आग में हम भगत की तरह अपने आपको जलाने की गलती नहीं करें। यदि भगत सिंह ने यह गलती नहीं की होती हम सब जानते हैं कि आज भारत की तस्वीर अलग होती।

2. बास एक जनान्दोलन है और हम सभी जानते हैं कि जनान्दोलन की पहली ताकत है-जनबल। विशेषकर भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ सिर तो गिने जाते हैं, लेकिन ये नहीं देखा जाता कि सिर के अन्दर क्या है? अतः हमें जनबल की ताकत को समझना होगा। अतः मेरा आह्वान है कि-

एक साथ आना शुरुआत है,
एक साथ रहना प्रगति है और
एक साथ काम करना सफलता है।

3. यहाँ यह बात समझने की है कि केवल खोखले आदर्शों के सहारे जीवन नहीं चल सकता। दूसरों को शिक्षा देने से भी कुछ नहीं होता। व्यक्ति को दूसरों से कोई काम करवाना है, तो पहले उसे स्वयं को वह काम आना चाहिये, जिसे वह करवाना चाहता है। अतः मेरा मानना है कि-

अपने आपको बदलो! दुनिया बदल जायेगी!
हम जो कुछ कहते हैं, उसे अपने आचरण से प्रमाणित करें।

4. आप सभी जानते हैं कि कोई भी इंसान जब तक दृढता से खडा होकर अपने विचार व्यक्त नहीं करता है लोगों या समाज को कुछ भी पता नहीं चलता है। अतः मैंने कोई नयी बात नहीं कही है फिर भी मेरा इन शब्दों में आह्वान है कि-

बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे?
दिखोगे नहीं तो कोई देखेगा कैसे?

5. लोग इसलिये भी हमारे अधिकारों को छीनते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि हम डरपोक हैं। उनके सामने खडे होकर उनका विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। जबकि यदि हम पूरी एकजुट ताकत के साथ विरोध करें तो किसी की हिम्मत नहीं कि वह हमारे कानूनी और संवैधानिक हकों पर डाका डाल सके। अतः मेरा इन शब्दों में आह्वान है कि-

यदि आप थोडा सा भी दबे, तो लोग आपको और दबायेंगे।
यदि आप मुकाबला करोगे, तो वे दुम दबाकर भाग जायेंगे।

आशा है कि फिलहाल इतना जानना पर्याप्त होगा। आगे भी इस ब्लॉग पर मैं लिखता रहूँगा। आपका साथी, मित्र एवं सहयोगी-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा।-07.11.2009

1 comment:

  1. प्रिय पुरुषोत्तम,
    तुम्हारी जीवनगाथा पढ़ कर लगा की तुम पुरुषों में उत्तम हो.
    तुम मैंने अपने अनुजवत होने के कारण लिखा है ( मैं १९५५ का हूँ)
    संभव की मेरी विचारधारा कई बार तुम्हे रास ना आये पर यह तुम्हारे या तुम्हारे जैसे किसी के प्रति विद्वेष के कारण नहीं वल्कि राग द्वेष से उन्मुक्त दशा में समझ पाने की स्थिति में आने तक ही है जिसके बाद तुम्हे वह सब कुछ रास आ जाएगा जो मैंने कभी लिखा क्योंकि मेरा किसी के प्रति लिखते समय उसकी स्थान पर ही खड़ा होकर सोचने का रहता है
    मैंने भी आदिवासी समाज में अपना कुछ समय बीताया है -उनके बीच ५०० किलोमीटर दूर से जाकर कैम्प लगाये हैं
    याद रखो एक मन्त्र- घृणा से ग्रीन का अंत नहीं होता
    प्रेम से ही घृणा का अंत होता है
    जीवन में और अच्छा करो , और अधिक लोगों के लिए करो पर सबों के लिए सामान सोचो
    जय पुरुषोत्तम की! माता -पिटा ने बहुत अच्छा नाम दिया है जिसका महत्व एक दशक के बाद स्वयम तुम्हे हो जायेगा
    धनाकर ठाकुर

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