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08 November 2009

कविता : दुआएँ निकलती हैं!


कविता : दुआएँ निकलती हैं!
डॉ पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

मैं जी रहा हूँ, उस तरहा?
जिस तरह से लोग मरते हैं।
जब घिर जाते होंगे, चहुँ ओर से-
शायद तब ही लोग-खुदकुशी करते हैं।

मगर मैं कायर हूँ,
नहीं है, मुझमें हिम्मत इतनी-
कि कर सकूँ खुदकुशी और पा लूँ निजात!
इस दुश्मन और नकाबपोश दुनिया से।
उन नाते रिश्तों से जो बन गये हैं-
कभी न भरने वाले जख्मों के नासूर।
नहीं, नहीं,
केवल इसलिये ही नहीं, बल्कि
मैं नहीं कर सकता खुदकुशी,
क्योंकि-
यह केवल कायरता ही नहीं है,
सबसे घिनौना अपराध भी है।

कैसे हो सकता है कोई इतना क्रूर?
कर सकता है, जो खुद का खून!
न तो वह मानव है,
और न हीं हकदार है वह
जीव, मानवता और
संवेदनाओं की बात करने का!
सपनों की राख 

मगर मैं मर-मर कर भी जिन्दा हूँ!
शायद इसलिये भी जिन्दा हूँ-
शायद इतनी सी आस में,
एक हल्के और धुंधले से विश्वास में-
हालातों के भंवरों के थपेड़े सहकर भी
यदि रह सका जिन्दा! और
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
पहाड़ों से दुःख काटे हैं, जिसकी आशा में
घुट-घुट कर सहे हैं,
अपनों के उपहास और यातनाएँ।
यद्यपि-
दिखता नहीं सूरज का उजास!
फिर भी न जाने क्यों है विश्वास?
अभी खत्म नहीं हुआ है, सब कुछ!
शेष है अभी भी तो मेरे पास।
अपनों के दर्दों की सौगात।
किसी की दी हुई सौगात-
यों ही ठुकराई भी तो नहीं जाती।
फैंकी भी नहीं जाती ऐसी सौगात!
क्या मैं संभाल सकूँगा,
इस सौगात को?
अन्त समय तक,
तब तक, जब तक-
देने वालों का दिल न भरे!

मैं जानता हूँ कि-
होगा वही जो होता आया है।
इतिहास में हजारों मुझ जैसों के साथ!
मगर हर हाल में जीना है।
हाँ, शुकून है इतना कि-
और कुछ हो न हो!
इतना क्या कम है?
आज तक किसी ने, न चलाई तलवार!
नहीं उठाई बन्दूक!
लेकिन,
कल ये भी हो सकता है।
आखिर-
धन, दौलत और
एश-ओ-आराम
किसे बुरे लगते हैं।
इनके सामाने क्या औकात है मेरी?
हूँ तो सिर्फ मैं एक इंसान ही ना।
एक ऐसा इंसान, जिसकी कीमत
जन्म देने वालों तक की नजर में,
जानवरों से भी कम है!
जिसे अपमानित करने में
शायद उन्हें भी मिलता सुकून ऐसा,
सांप को कुचलने में मिलता हो जैसा।
एश-ओ-आराम के नशे में धुत्त
नरपिशाचों की नजर में क्या है इंसान?
है तो श्वांस लेता एक छोटा सा पिंजरा।
कल को हो गया छेद, टूट जायेगा पिंजरा॥
उड़ने तक पिंजरे से, इस पंछी के-
ढोना ही होगा इस पिजरें को।

पता नहीं, है ये कर्त्तव्य या मेरा अधिकार?
आशा और उम्मीद है तो इतनी सी-
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा,
कुम्हलाये हुए पत्तो में जान आ जाये।
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
उम्मीद में जिसकी काटे हैं-पहाड़ों से दुःख,
सह लिया जिसकी खातिर सब कुछ!
काश! बदल जाये हवा का रुख?
हो जाये करम ऊपर वाले का और
मेरे घर के दरवाजे पर भी दे दस्तक
ठण्डी हवा का वह झौंका,
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दर्द होता है।

जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दम घुटता है।

जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी श्वांस अटकती है।
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिनके लिये
किया था, बलिदान खुशियों का!
उनके लिये अब तो-
दुआ करने में भी जबान अटकती है।

कितना मूर्ख हूँ मैं भी !
जिन्हें, मेरे स्नेह,
मेरे उत्पीड़न,
मेरे उपहास,
मेरे कोमल अहसास,
मेरी खुशियों और
मेरे जीवन तक की परवाह नहीं रही।
वहाँ मेरी दुआओं का क्या मोल होगा?

परन्तु न जाने क्यों मेरे रोम-रोम से
अभी भी उनके लिये
दुआएँ निकलती हैं।
डॉ पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
समय रात्री 11.55
दिनांक : 08/11/2009, जयपुर।

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