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20 November 2009

गुलामी का प्रतीक धारा 151 आज भी लागू!

यह एक ऐसा मनमाना प्रावधान है, जिसके तहत अपराध हुआ नहीं और पुलिस कहती है कि उसे लग गया कि अपराध किया जा सकता था। इस प्रावधान के चलते कभी भी, किसी को भी गिरफ्तार करके हवालात में बन्द कर देना पुलिस के बायें हाथ का खेल है। गहराई में जाकर देखा जाये तो यह कानून अंग्रेजों द्वारा उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीयों को कुचलने के लिये बनाया गया था, लेकिन दण्ड प्रक्रिया संहिता में इसे आज भी स्थान दिया गया है। जो पुलिस के लिये आजाद देश के नागरिकों के उत्पीडन करने का कानूनी हथियार सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार की अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी, अनेक धाराएँ आज भी भारतीय कानूनों में चल रही है। सरकार को चाहिये कि इनको तत्काल दण्ड प्रक्रिया संहिता से निकाला जावे।
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आजादी से पूर्व भारत में अंग्रेजों का राज्य था और कानून के नाम पर अंग्रेजों ने हम पर अनेक ऐसी व्यवस्थाएँ जबरन थोपी, जिनका न्याय से दूर का भी वास्ता नहीं था। जबकि कानून कैसा हो इस बारे में विश्व के सभी विधिवेत्ताओं का मानना है कि कानून एक निष्पक्ष व्यक्ति की आत्मा की आवाज होना चाहिये।


न्यायशास्त्र में यह भी कहा गया है कि कानून नागरिकों के लिये होते हैं, न कि नागरिक कानूनों के लिये। यदि कोई कानून नागरिकों के सम्मान एवं जीवन में गैर-जरूरी हस्तक्षेप करता है तो ऐसा कोई भी कानून विधि-सम्मत नहीं माना गया है। इस विचार की पुष्टि भारतीय संविधान के भाग 3, अनुच्छेद 13 के उप अनुच्छेद (1) एवं (2) को पढने से भी होती है। जिनमें साफ शब्दों में कहा गया है कि संविधान के भाग तीन में प्रदान किये मूल अधिकारों का हनन करने वाले या मूल अधिकारों को कम करने वाले, आजादी से पूर्व में बने सभी कानून संविधान लागू होते ही स्वतः समाप्त (शून्य) हो जायेंगे और संविधान लागू होने के बाद भी मूल अधिकारों के विपरीत सरकार, संसद, या विधान मण्डलों द्वारा कानून नहीं बनाये जा सकेंगे। इसके बावजूद भी यदि ऐसे कानून बनाये जाते हैं तो वे कानून उस सीमा तक शून्य होंगे, जिस सीमा तक वे मूल अधिकारों का हनन करते हैं या मूल अधिकारों को कम करते हैं।


पाठकों की जानकारी के लिये संविधान के उक्त प्रावधान का उपबन्ध करने वाले अनुच्छेद 12 का मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत हैः-

"13. मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ-

(1) इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग (भाग-॥।, जिसका शीर्षक है-मूल अधिकार) के उपबंधों से असंगत हैं।

(2) राज्य (भाग-3, के अनुच्छेद 12 में राज्य की परिभाषा दी गयी है, जो इस प्रकार है-अनुच्छेद : 12. परिभाषा-इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, राज्य के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान-मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं।) ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग (भाग-3, जिसका शीर्षक है-मूल अधिकार) द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून (कम) करती है और इस खंड (अनुच्छेद 13 के खण्ड 2) के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।"


इतना ही नहीं, बल्कि उक्त प्रावधान के होते हुए भी यदि सरकार द्वारा कोई ऐसा कानून बना दिया जाता है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का हनन करता है या उन्हें कम करता है तो, ऐसे किसी भी कानून को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत सीधे अपने राज्य के हाई कोर्ट में या अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर, उसे असंवैधानिक भी घोषित करवाने का भी मूल अधिकार है। उक्त विवेचन में संविधान के तहत प्रदान किये गये मूल अधिकारों की महत्ता स्वतः ही प्रमाणित हो जाती है। लेकिन जैसा कि प्रारम्भ में ही लिखा गया है कि कानून के नाम अंग्रेजो द्वारा हम पर अनेक ऐसी व्यवस्थाएँ जबरन थोपी गयी थी। जिनका न्याय से दूर का भी वास्ता नहीं था। उन सभी व्यवस्थाओं को उक्त अनुच्छेद 13 (1) के तहत समाप्त कर दिया गया है, लेकिन इसके बावजूद भी अनेक असंवैधानिक कानूनी प्रावधान आज भी नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन कर रहे हैं। उदाहरण के लिये अनुच्छेद 22 (1) में साफ शब्दों में कहा गया है कि-
"22. (1) किसी व्यक्ति को जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा या (उसे) अपनी रुचि के विधि व्यवसायी (एडवोकट) से परामर्श करने और प्रतिरक्षा (बचाव) कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।" संविधान में उक्त मूल अधिकार केवल भारत के नागरिकों को ही नहीं, बल्कि भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को दिया गया है। जिसके अनुसार बिना कारण बताये किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करना असंवैधानिक है।"
इसके बावजूद भी भारत में अंग्रेजों के जमाने में लागू की गयी और उसे कुछेक बदलावों के बाद स्वीकार की गयी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 151 में प्रावधान किया गया है कि कोई पुलिस अधिकारी, बिना वारण्ट और बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करके बन्द कर सकता है, जिसके बारे में पुलिस अधिकारी को जानकारी हो कि वह व्यक्ति कोई संज्ञेय अपराध करने की कल्पना कर रहा है और उसे रोक पाना सम्भव नहीं है। इस प्रकार के कानून अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को उत्पीडित करने के लिये बनाये गये थे। इस कानून में आश्चर्यजनक तथ्य है कि जो अपराध अभी किया नहीं गया है, केवल उस अपराध को करने की, एक व्यक्ति कथित रूप से कल्पना मात्र कर रहा है, उसकी भी जानकारी पुलिस अधिकारी को मिल जाती है। फिर भी वह उस अपराधी को ऐसा अपराध करने से रोकने में अक्षम है। इसलिये उसे गिरफ्तार करके बन्द कर देता। इस सम्बन्ध में सबसे पहली बात तो यह है कि दण्ड प्रक्रिया संहित की धारा 151 का उक्त प्रावधान संविधान के उक्त अनुच्छेद 22 (1) के में प्रदान किये गये मूल अधिकार को कम करने वाला होने के कारण और संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के भी विपरीत होने के कारण विधि-सम्मत नहीं होकर शून्य है। द्वितीय यहाँ यह भी विचारणीय है कि एक ओर तो धारा 151 में पुलिस को इतनी सक्षम माना गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा अपराध किये जाने की कल्पना करते ही, पुलिस उस कल्पना करने वाले का पता लगा लेती है, लेकिन इसके ठीक विपरीत इसी धारा में पुलिस इतनी कमजोर भी मानी गयी है कि जिस व्यक्ति के बारे में पुलिस को पता चल चुका है कि वह कथित रूप से अपराध करने की कल्पना कर रहा है, उसे बिना गिरफ्तार किये सम्भावित अपराध करने से रोकने में अक्षम है। इसलिये इस धारा की आड में इस देश की पुलिस अपराध किये जाने की कल्पना मात्र को आधार बनाकर किसी भी निर्दोष व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है।


यह एक ऐसा मनमाना प्रावधान है, जिसके तहत अपराध हुआ नहीं और पुलिस कहती है कि उसे लग गया कि अपराध किया जा सकता था। इस प्रावधान के चलते कभी भी, किसी को भी गिरफ्तार करके हवालात में बन्द कर देना पुलिस के बायें हाथ का खेल है। गहराई में जाकर देखा जाये तो यह कानून अंग्रेजों द्वारा उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीयों को कुचलने के लिये बनाया गया था, लेकिन दण्ड प्रक्रिया संहिता में इसे आज भी स्थान दिया गया है। जो पुलिस के लिये आजाद देश के नागरिकों के उत्पीडन करने का कानूनी हथियार सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार की अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी, अनेक धाराएँ आज भी भारतीय कानूनों में चल रही है। सरकार को चाहिये कि इनको तत्काल दण्ड प्रक्रिया संहिता से निकाला जावे।

-लेखक होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शौधार्थी, तनाव मुक्त जीवन विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 में राष्ट्रीय स्तर पर पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। दिनांक : 18.11.2009 तक, बास के 3884 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं।

2 comments:

  1. भारतीय कानून व्यवस्था व पुलिस आजादी से पूर्व अँगरेजो की सँरक्षक थी और आज राजनेताओ की यहाँ जनतन्त्र नही राजतँत्र है आम आदमी के लिये इसका कोई ओचित्य नही

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  2. गलत है यह धारा जब कोई पीङीत थानै जाता है एफ आई आर करानै तो पुलीस पीङित को भी 151की धमकी दैती है मैरा यै मानना है की ईस धारा मै ससोघन होना चाहियै पुलीस ईसका फायदा उठाती है ओर निदोष लोगो को फसाती है

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