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11 November 2009

मेरी जुंबां-मेरी शायरी

जिन्हें देखे बिना ही लगता है,
हमें देखे जैसा।
जियेंगे कैसे हम,
गर नहीं मिला, कोई उन जैसा॥


(प्रेसपालिका-01-15 दिसम्बर, 2008 में प्रकाशित)
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कब्र तक पहुंचाने वाले अदा करते हैं शुक्रिया हम।
इस मंजिल से आगे, अकेले ही चले जायेंगे हम॥


कहते थे लोग इश्क का रोग
जिसे शायद यही है वो।
न जाने किधर से मेरे दिल में,
समाया जाता है वो॥


मिलने का करके वायदा
और भी मुश्किल में डाला आपने।
मुश्किल थी जिन्दगी मेरी,
अब मरना भी मुश्किल हो गया॥


दिल तो कहता है कि
 मर जाऊं तेरी याद लिये।
होश कहता है कि
उनसे भी तो मिलते जाओ॥

मैंने सिर्फ और सिर्फ आवाज सुनी है, उसकी।
लगता है, मूरत दिल में बस गयी है, उसकी॥ 




(प्रेसपालिका-16-31 दिसम्बर, 2008 में प्रकाशित)
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करूं न क्यों शिकवा तुझसे,
मेरी तकदीर को लिखने वाले।
रो पडे तू भी, अगर तू मेरा मुकद्दर,
मेरे ये हालात देख ले॥



ऐसा न हो कि मेरे दिल का ये दर्द, बन जाये नासूर।
कहीं ऐसा न हो कि तुम प्रायश्चित्‌ भी न कर सको॥



मैंने भी तुझको न समझा,
तूने भी की अनगिनत खताएँ।
आ गया वक्त मरने का,
अब तू किसलिये मुझे सताए॥


वादा न ले, वादा तो वादा है,
ये न याद रहेगा मुझको।
कर तू सिर्फ इतना,
अपनी बांहों में सम्भाल ले मुझको॥


इन स्याह रातों में,
अब यादों का सहारा भी नहीं मुझको।
वर्षों सम्भाला तुमने जिसको,
क्यों छोड चले तन्हा उसको?

कैसा ये शिकवा कि मैं तुमसे बेखबर हूँ।
मैं तो खुद अपने ही हाल से बेखबर हूँ॥


रूठ के चल तो दिये हो बेरहम
तुम, आँख चुराके मुझसे।
बसता हूँ मैं तो दिल में,
धडकोगे तुम मुझ बिन किससे?

तू जो एक बोतल शराब हो जाये।
जिन्दगी मेरी कामयाब हो जाये॥


जब जाना मेरा दर्दोगम होश उन्होंने खो दिये।
आये थे समझाने और सुनके मेरी खुद रो दिये॥




किस उम्मीद से हम किसी को देखें?
क्या कोई मेरे महबूब से भी हंसी होगा?


कांटों से बचके लोग, फूलों को गले लगाते हैं?
एक हम हैं कि जिसने फूलों से जख्म खाये हैं?

तू ही बता ए दोस्त, दूँ क्या जवाब उनको?
पूछते हैं वो मुझसे, तूने क्यों चाहा मुझको?

पूछती हैं वो हमसे हर कदम, क्यों इत-उत देखते हो मेरे बलम?
करे क्या कोई, देखकर हूरों को पड जाये जो ईंमां में खलल?

डर से मौत के, बे-वजह परेशान हैं आप।
आप जिन्दा ही कहाँ हैं, जो मारे जायेंगे?

(प्रेसपालिका-16-31 दिसम्बर, 2008 में प्रकाशित)
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आप क्यूं परेशान हैं, हमको आजमाने में।
मिला है दर्द हमको, वफा निभाने में॥


(प्रेसपालिका-01-15 मार्च, 2009 में प्रकाशित)
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जिन्हें देखा नहीं कभी, वो अक्सर याद आते हैं।
देखता हूँ जिन्हें रोज, भुलाने को जी चाहता है॥

नहीं देखा फिर भी किस तरह भुलाँऊं उनको मैं।
कैसे बताऊं, किस बात पर याद नहीं आते हैं॥

(प्रेसपालिका-16-31 मार्च, 2009 में प्रकाशित)
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जी रहे थे हम, जिन दिली तमन्नाओं और ख्वाबों के भरोसे-
मसला, कुचला और बर्बाद किया है, दिल में बसने वालों ने।

किनसे लें बदला, किनसे करें, किसकी शिकायत?
जब मेरे हत्यारों को, पनाह दी मेरे ही माँ-बाप ने॥

जिन घरों की दीवारें, मेरे खून-पसीने से महकी हैं।
अब वो ही दरो-दीवार, मेरे अरमानों के कत्लगाह हैं॥

होकर कैद से आजाद, न कर तू आजादी का इजहार।
तेरी तमन्ना-ए-आजादी, अपनों के अहसानों तले कैद हैं॥

मुखालफत की हो, जिसने अपनों के जुल्मों की।
सहनी ही होगी उसे, सजा अपने इन कुकर्मों की॥

सारी तमन्नाओं को मार कर, वो जिन्दा लाश बन गया।
करता भी क्या, जब कुनबा ही उसका हत्यारा बन गया॥

जिनकी खुशियों की खातिर, मैंने अपनी खुद्दारी तब बेच दी।
मेरे अरमानों की हत्या कर, सबने नफरत की कीलें ठोंक दी॥

बडी खुशनुमा और हसीन हो सकती थी, ये जिन्दगी।
मेरे अपनों ने ही जिसे, सजा-ए-उम्र-कैद बना दिया॥

जिन्हें शान-ओ-शराब में ही जिन्दगी नजर आती है।
मेरी लाचार नजरें भी उन्हें, अपराधी नजर आती है॥

जरूरत है जिस-जिस चीज की, वो तुम कुछ भी मत छोडो।
कुछ मत भी छोडो, पर सांस लेने का कोई तो बहाना छोडो॥

मर तो जाता, मगर नजरों में एक चेहरे का ख्वाब बाकी है।
क्या करूं, उस चेहरे के दीदार का अरमान अभी बाकी है॥

दर्द-ओ-गम और जिल्लत की मुखालफत ही मेरा अपराध है।
मौत से बदतर हालातों में भी जिन्दा हूँ, यही मेरा अपराध है॥

जुल्मों की जंजीरों में जो बन्दा, हर तरह लाचार और हताश है।
आश्चर्य है, हैवानों को, इस जिन्दा लाश से किसकी आस है?

दुआओं का सागर था जो दिल, दर्दे गम का समन्दर हो गया।
जिन्हें सींचा था मैंने प्यार से, मैं उनकी नफरतों में खो गया॥

इस बियावान इंसानों के शहरी जंगल में, मैं अकेला रह गया।
कैसे किसको पुकारूं अब, मेरा ये भी गया, मेरा वो भी गया?

कदम चूमती हैं मंजिलें, चलकर उन राहगीरों के।
कूबत हो जिनमें, चुनकर राह अकेले चलने की॥

जिन्हें देखा नहीं कभी, वो अक्सर याद आते हैं।
देखा मैंने है जिन्हें, रोज भूल जाने को जी चाहता है॥

क्यों उठाते हो कसम, क्यों करते हो वायदा तुम?
याद आते ही हमारी, रोज नीयत खराब होती है॥

नहीं देखा फिर भी, किस तरह भुलाँऊं उनको मैं।
कैसे बताऊं, वो किस बात पर याद नहीं आते हैं॥

दिल और दिमाग की रस्साकशी, ये कैसी मुसीबत है।
दिमाग तो चालाक है, दिल की सुनी तो बात बनी है॥

चाहतें-इश्क तक, न हो सकी मेरी मोहब्बत बयां।
चलते-चलते अब तो, मैं जीवन से ही हार गया॥

समझ बैठे थे, जिसे हम अपनी ख्वाब-ए-मंजिल।
वो तो खुद ही, अपनी मंजिल की तलाश में था॥

मैं कोई पुराना शराबी नहीं, जो पीके भी नशा न हो।
सिर्फ एक प्याला, अपनी आँखों से पिलाके तो देख॥

मुझे पानी समझने वाले, पुरानी शराब हूँ मैं।
अपने होठों से तो लगा, अंगूरी शराब हूँ मैं॥

माना कि खाली है पैमाना, मगर गुरेज नहीं।
होता है नशा मुझे, जब आती है याद तेरी॥

दिल में न उतर सकी, कोई भी तीरे नजर।
सो जी रहा हूँ, मैं किसी के इन्तजार में॥

(प्रेसपालिका-16-30 अप्रेल, 2009 में प्रकाशित)
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बैठना पास उस गैर के, क्या बहुत जरूरी था।
लिहाज तुमने जरा भी हमारा नहीं किया था॥


(प्रेसपालिका-01-15 मई, 2009 में प्रकाशित)
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-डॉ। पुरुषोत्तम मीणा "निरंकुश"
लेखक, कवि, शायर, चिन्तक एवं सामाजिक कार्यकर्ता

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